हाय मैं कुम्भ नहीं जा पाया

हाय मैं कुम्भ नहीं जा पाया

बचपन से ही मैं कुछ - कुछ संकोची स्वभाव का हूँ. लोग जिन कामों को छाती ठोक कर करते हैं, उन्ही कामों को करने में मुझे अक्सर शर्मिंदगी महसूस होती है. शर्मिंदगी का ये अनुभव मेरी जिंदगी का स्थाई भाव है. यूँ तो ये बीमारी मुझे बचपन से ही है, पर इन दिनों यह कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है . दरअसल जबसे महाकुम्भ का समापन हुआ है , लगता है सारा जमाना मुझे ही मुंह चिढ़ा रहा है. कल ही मेरे एक निकट मित्र बडे गंभीर भाव से कह रहे थे – पंडितजी छियासठ करोड लोग कुम्भ में डूबकी लगा आये, तुम्हें भी जाना चाहिए था. पर कोई बात नहीं अगली बार सही. अलबत्ता ये वहीँ मित्र हैं जो महीने भर मेरे साथ भीड़ कम होने पर कुम्भ जाने का प्लान बनाते रहे और फिर एक दिन बिना बताये किसी और के साथ जाकर संगम में गोता लगा आये. अपने इस मित्र से मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मुझे सांत्वना देने के बाद वे निश्चित रूप से मुंह फेर कर हंस रहे होंगे. खैर मित्र की बात मित्र ही जानें, मै सच में,  कुम्भ न जा पाने के लिए शर्मिंदा हूँ.

ऐसा नहीं है कि मैंने कुम्भ जाने का प्रयास नहीं किया. मैंने तो कुम्भ आरम्भ होने से पहले ही बड़े बड़े प्लान बना रखे थे. कई लोगों से बात कर रखी थी, ट्रेन से लेकर वायुयान, कार, मोटरबोट अदि सारे विकल्पों का विस्तार पूर्वक अध्ययन कर लिया था. बस एक उचित अवसर का इंतजार था जो कभी आ नहीं पाया. कभी मौसम, कभी भीड़ तो कभी ट्रफिक जाम के चलते कार्यक्रम टलता रहा. बीच - बीच में जैसी कि फितरत है , लोग भी अपने वादों से मुकरते रहे. अंतिम प्रयास के रूप में एक बस में सीट बुक भी कराई तो पता लगा कि बढती भीड़ के चलते बस ऑपरेटर ने ट्रिप ही रद्द कर दी. लोगों को दोष देकर क्या लाभ? सीधी और सच्ची बात यह है कि मै अकेले जाने से बचता रहा , इसलिए नहीं जा पाया. अपने इस कायरपन पर  मै वाकई शर्मिंदा हूँ.

हद तो ऊपर वाले मित्र ने की, कुम्भ पहुँच कर भी साँस नहीं ली कि मैंने तो स्वर्ग की सीट रिज़र्व कर ली , तुम्हें नरक ही मुबारक. भाई ने अगर वहां से फ़ोन ही किया होता तो दरख्वास्त कर देता कि भईया मेरी फोटो को ही स्नान करा दो. सुना है कि यह धंधा भी कुम्भ में खूब फला फूला. लोगों ने पांच सौ रुपये में ही फोटो को स्नान करा कर भाई लोगों का स्वर्ग वास सुनिश्चित कर दिया. मै यह भी नहीं करा पाया, इस लिए मैं कुछ ज्यादा ही शर्मिंदा हूँ.

आजकल मैं अपने चारों ओर, जिसे भी देखता हूँ, महाकुम्भ रिटर्न का बिल्ला लगाये हुए दिखाई देता है. कलुआ, मुनुआ, लल्लू , बिल्लू , सोसाइटी का प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन, घर की मेड, ड्राईवर, ऑफिस के साथी अदि सभी संगम में गोता लगा आये और इठलाते घूम रहे हैं. लगता है मैं अकेला ही अधार्मिक, अभागा बचा हूँ इस सनातनी दुनिया में. वैसे जिंदगी की दौड़ में मै इतना फिसड्डी भी नहीं हूँ.  ले दे कर मिडिल क्लास वाला स्टेटस तो अपने पास भी है. पर इस कुम्भ ने तो अपने को अति पिछड़ा वर्ग में ही धकेल दिया. इसलिए मैं इधर  कुछ ज्यादा ही शर्मिंदा हूँ.

इस बार का महाकुम्भ अपने आप में ‘न भूतो न भविष्यत्’ वाला था. केवल इसलिए नहीं कि सौर परिवार इस दशा को पूरे १४४ वर्ष बाद प्राप्त हुआ था, बल्कि इसलिए भी कि इस महाकुम्भ का व्यावसायिक महत्व, अध्यात्मिक महत्त्व से थोडा ज्यादा ही था. यह ऐसा अवसर था जिसने मोटर साईकिल वालों को कारवाला और मल्लाहों को सफल व्यापारी बना दिया. विस्श्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस कुम्भ में कुल मिलकर ३ लाख करोड़ का व्यवसाय हुआ है. अगले एक दो साल में उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था  को १ ट्रिलियन और भारत अर्थव्यवस्था को ५ ट्रिलियन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी इसी महाकुम्भ पर थी. अब ये मत पूंछ बैठिएगा कि एक ट्रिलियन में कितने लाख करोड़ होते हैं? गणित में वैसे ही अपना हाथ थोडा तंग है.  आप तो जानते ही होंगे कि ५ ट्रिलियन होते ही हम विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेंगे. सोचिये वो कितने गर्व का विषय होगा? अलबत्ता  विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या हम पहले से हैं. ये अलग बात है कि उसे हम गर्व का विषय मानने में तनिक संकोची हैं. पर मेरी दुविधा दूसरी हैं. मुझे लगातार यह आशंका लगी रहती है की ५ ट्रिलियन होने में कहीं हजार पांच सो रुपयों की कमी रह गयी तो वो मेरे कारण ही होगी. इस लिए मैं शर्मिंदा हूँ और गंभीर रूप से शर्मिंदा हूँ. इस बात की पूरी संभावना है कि जब तक भारत ५ ट्रिलियन अर्थव्यवस्था न बन जाता, मै शर्मिंदा ही रहूँ.

महाकुम्भ इस मामले में भी अभूतपूर्व था कि तकनीक और विज्ञापन का जैसा प्रयोग इस बार हुआ, वैसा पहले और किसी महाकुम्भ या दूसरे अवसर पर नहीं हुआ. ऐसा कोई माध्यम नहीं बचा, जिस पर योगीजी (और कभी कभी मोदीजी भी ) हर घंटे लोगों को कुम्भ आने की दावत देते हुए न दिखाई पड़ते हों. वो तो सड़कें कम पड गईं या यूपी पुलिस ने बेरिकेड लगा कर कम करवा दीं, नहीं तो ४-६ करोड़ लोग और पहुंवते. हर स्वनामधन्य नेता या अभिनेता (अभिनेत्री भी) लोगों को महाकुम्भ स्नान के लिए प्रोत्साहित करने में जूटा था, तो असर कहाँ तक न होता. पर हाय रे मेरी किस्मत इतनी तकनीक और इतना प्रोत्साहन भी मुझे कुम्भ जाने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर पाया . इसलिए मै हर खासो आम के प्रति शर्मिंदा हूँ और अंतिम समाचार मिलने तक शर्मिंदा ही हूँ.  
   


 

DHANESH CHATURVEDI