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मानत नाहिं निहोरें, बिना रंग मैं हरि बोरें।
खोलन देत न द्वार किवारन, घेरि लेत घर भोरें।
ग्वालन गोल लगे सँग डोलें, केसरि कुमकुम घोरें,
अबीर की भरि भरि झोरें।।
केतिक दाँव बचाय जमुन-जल, जाउँ उजागर चोरें।
बैरी बाट बँधिकर बैठत, गहि बहियाँ झकझोरें,
फारि पट धरि धरि दौरें।।
बोलत बोल अबोल ‘अरी’ कहि, गहि दोऊ गाल मरोरें।
भेंटत भुज भरि बार हजारन, चख चूमत चित चोरें,
चतुर चोली बँद खोलें।।
देखि दसा गुरुजन गरियावत, चलत मौन मुख मोरें।
कहाँ लौ ‘मतोल’ कहों जाकी गति, करि करि जतन करोरें,
भई सारद मति भोरें।।