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मोहनी मुसक्यानि सखी, लागै सोई जानै।।
ठाढ़ी हुती मैं अपने बगर में, औचक निकसौ है आनै।
मंद हँसनि मुसकानि माधुरी, लागे हैं मनमथ बानै,
सखी कोई पीर न जानै।।
घायल भई मृगी सी डोलूँ, पड़ी हूँ धरनि बिच आनै।
जंत्र मंत्र औषधि घिसि लावौ, करियो कोटि उपानै,
जतन कोऊ करियो सयानै।।
दूजौ नाहि उपाउ सखी री, बेगि मिलावहु कान्है।
वे जानत हैं पीर हमारी, ‘युगल सखी’ के प्रानै,
सखी कोई धीर न जानै।।