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नर समझत नाहिं अनारी।
गर्भवास में उलटो लटक्यो, पायो दुख अतिभारी,
जो प्रभु अबकें बाहर निकसों, भजन करूं मैं भारी,
पलक नहिं देऊ बिसारी।।
आया था कुछ लाभ करन कों, गांठ की पूंजी हारी,
सौदा कर ले राम नाम का, आवों शरण गिरधारी,
भरोसो है जिनको भारी।।
जन्म होत माया लिपटायो, भूल गयो सुधि सारी,
भक्ति भाव में चित ना राखो, ऐसी कुमति विचारी,
जन्म की कर दई ख्वारी।।
श्री सतगुरू तोहि नित समझावत, वे सबके हितकारी,
आप तरें औरों को तारें, कहें हरिदास पुकारी,
उमर यों ही मुफ्त गुजारी।।