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री! कछु पीर न जानै, अँखियन भरत अबीर।।
मुरकावत मेरी नरम कलइयाँ, खैंचत धरि धरि चीर।।
भरि पिचकारी मुख पर मारत, अरू मारै दृग तीर।।
‘मोहनदास’ कहाँ लगि बरजौं, आखिर जाति अहीर।।