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मैं तो सोय रही सपने में, मोपै रंग डारौ नन्दलाल।।
एक दिन श्याम मेरे घर आयो जी,
ग्वाल बाल कोई संग न लायो जी,
पौढ़ि गयौ पलिका पै मेरे संग, टटोरन लागो मेरे अंग,
दई पिचकारी भर-भर रंग।
पिचकारी के लगत ही, मो मन उठी तरंग,
जैसे मिश्री कंद ने, घोरि पिलाइ दई भंग,
घोरि पिलाइ दई भंग, गाल दोउळ कर दिये लाल गुलाल।।
खुले सपने में मेरे भाग, कि मेरी गई तपस्या जाग,
मनाय रही हंसि हंसि फाग सुहाग।
हंसि हंसि फाग मनावती, चरन पलोटत जाँउ,
धन्य धन्य या रैनु कों, फिर ऐसी नहिं पाँउ।।
फिर ऐसी नहिं पाँउ, भई सपने में माला माल।।
इतने में मेरे खुल गये नैंना रे, देखूँ तो कछु लैना न दैना रे,
पड़ी पलिका पै मैं पछितात, कि मीड़त रह गई दौनों हाथ,
कि मन की मन में रह गई बात।
मन की मन में रह गई, है आयौ परभात,
बजो फजर को गजर तो, रहे तीन ढ़ाक के पात,
तीन ढ़ाक के पात, रही कंगालिन की कंगाल।।
होरी को रस रसिक हि जानें रे, रसकौ क्रूर कहा पहिचानें रे,
जो रस देखौ ब्रज के मांहि, सौ रस तीन लोक में नाहि,
देख के ब्रह्मादिक ललचाँय।
ब्रह्मादिक ललचावते धन्य धन्य ब्रज धाम,
गोवरधन दस बिसे में द्विजवर ‘घासीराम’
द्विजवर ‘घासीराम’ सदा वे कहैं रसीले ख्याल।।