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बाँसुरी बन बाजि रही री।।
अधर धरी अरू मुख पै विराजति, गावति तान नई।
जो मुरली नित उठि बाजत ही, सो मुरली यह नाहिं,
नई कोऊ श्याम लई री।।
जड़ चेतन मोहे सब ब्रज के, मोही कुँज मही।
बछरन नीर छीर तजि दीन्हौं, तृन न चरत मृग धेनु,
धार जमुना न बही री।।
जो गति भई है सकल या ब्रज की, सो नहिं जाति कही।
हौं निकसी ही दधि बेचन कों, ‘लेहु गुपाल गुपाल’,
भूलि गई नाम दही री।।
कैसे रहौं ब्रज में छिपि कें, मो पै धुनि नहिं जाति सही।
निकसि चली पिय रोकन लागे, जिय की तपन न जाय,
देह भई कृष्णमई री।।