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मथि मथि सोधौ धरौ भवन में, सो अंगनि लपिटै हों।
ये जो संगी सखा तिहारे, तिनकों अबहिं भजै हों।।
ज्यों ज्यों करि फागुन दिन आयौ, सबही के मन भायौ।
तोहि नहिं छोड़ों प्यारे छैल छबीले, सूनी बाखरि आयौ।
इत उत हेरत कहा नन्द के, चलौ गेह की मइयाँ।
सूधैं सूधैं कहति लाड़िली, नातरू गहि हों बहियाँ।।
आजु सबेरें हों उठि बैठी, कुचन कंचुकी फरकी।
अरू केसरि घोरत में मेरी, फर फर बायीं भुज फरकी।।
‘छीत स्वामी’ यहि अवसर कौ, सुख कहत नहीं बनि आवै।।
देखत बाबा नंद उजागर, मोहन वदन दुरावै।।