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लाग्यौ ही आवै मेरे गांहन।।
हौं तरुनी कोऊ और न बज्र में, अब कोऊ भटू समुझावै या मोंहन।।
एक दिन निकसी मैं द्यौस द्वार है कैं, वह लाग्यौ उठि कें मेरे गोहन।
मोहि न दोस, दोस इन नैननि, मैं काजर छाँड़यौ है या सोंहन।।
होत चबाउ नगर घर घर में, सासु ननद मानति नहिं सोंहन।
‘धाँधी’ के प्रभु बरजौ न मानत, प्रथम फाग मोही सन।।