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ऊधौ जब सों कियो हरि मथुरा गमन, मन पीर न जाति सही।।
आयौ फाग भयौ दुख दारून, खेलत ग्वाल मही।
बाजत ताल मृदंग झाँझ ढफ, धुनि नहिं जाति सही,
उत खेलत हरि चेरी भवन।।
योग तें प्रेम कठिन है ऊधौ, प्रेम ते योग नहीं।
सगुन नेह बिन जो तप कीन्हों, बृथा सो देह दही,
कहा भयौ करि असन पवन।।
सदा मलीन रहति केशव बिन, दृग जल धार बही।
ता पर जोग भसम तुम लाये, प्रीति भली निबही,
निठुर भये अब काली-दमन।।
यह संदेश कठोर श्याम सां, कहियो चरन गही।
‘हरिबिलास’ हरि मिलन आस, हित बाकी साँस रही
दीजै दरस प्रभु राधारमन।।