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देख ली हरि होरी तुम्हारी।।
लोभ गुलाल मलौ मेरे मुख सों, मोह की दीन्ही पिचकारी।
माया के रँग में ऐसी भिजोई, भूलि गई सुधि सारी,
पिया अपने कों बिसारी।।
काम-क्रोध के कुमकुम मुख पै, दै दै मारि पछारी।
आशा तृष्णा की गेंद बनाइ कें, ऐसी कुचन पर मारी,
हँसी ब्रज की सब नारी।।
पाप-कुटुम्ब की भरि कें गगरिया, बोझ धरौ सिर भारी।
तेरे सिवा कित जाय पुकारौं, को है अनोखौ खिलारी,
ऐसे खेल की मैं बारी।।