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दृगन झरना झर लायौ, साँवरौ अजहूँ नहिं आयौ।।
बृज बनितन कौ संग छोड़ि कें, मधुवन जाय बसायौ।
दासी करी पटरानी श्याम, गोपीनाथ कौ नाम लजायौ,
दास चेरी कौ कहायौ।।
लिखि पतियाँ छतियन बिच राखी, ऊधौ संदेसो लायौ।
कहारे करों ऐसो मीत विसासी, लिखि लिखि जोग पठायौ,
जहर बिस मोय पिलायौ।।
गृह ‘विशाल’ सबही हम त्यागौ, दृग अंजन न लगायौ।
अंग भभूति गले मृगछाला, श्रृंगीनाद बजायौ,
फागुन में अलख जगायौ।।