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ब्रज में हरि होरी मचाई।।
इततें आईं सुघरि राधिका, उततें कुँवर कन्हाई।
खेलत फाग परस्पर हिलमिल, शोभा बरनि न जाई,
नन्द घर बजति बधाई।।
बाजत ताल मृदंग झाँझ ढफ, अरू बाजै सहनाई।
उड़त अबीर कुमकुमा केसरि, रहत सदा ब्रज छाई,
मनहु मेघवा झर लाई।।
राधा सैन दई सखियन कों, झुंड-झुंड उठि धाईं।
झपटि लपटि गयीं श्याम सुंदर सों, बरबस मुख लपटाई,
लाल जू कों नाच नचाई।।
लीन्हों लकुटि पीताम्बर मुरली, सिर सों चुनरि उढ़ाई।
बेंदी भाल नैन बिच काजर, नक बेसरि पहिराई,
श्याम कों नारि बनाई।।
फगुआ दिये बिन जान न पैहौ, करियो कोटि उपाई।
लैहों काढ़ि कसरि सब दिन की, तुम चित-चोर कन्हाई,
बहुत दधि मेरी खाई।।
मुसकरात का मोरि मोरि मुख, कहाँ गई चतुराई।
कहाँ गये वे सखा तुम्हारे, कहाँ जसोमति माई,
लेत किन तुमहिं छुड़ाई।।
रास-बिलास करत वृन्दावन, ब्रज बनिता-जदुराई।
राधे-श्याम जुगल जोड़ी पर, ‘सूरदास’ बलि जाई,
प्रीत उर रहत समाई।।