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साजि कैं जो चली, रँगीली खेलन होरी।।
करि सिंगार माँग मुतियन भरि, साधि चली सुघरी।
नैनन अंजन आँजि कें, मानों बाढ़ि सिरोही धरी।।
सासु बुरी घर ननद हठीली, सैयाँ ने गारी दई।
तू मदमाती फिरति ग्वालिनी, कुंजन काहे गयी।।
मैं जमुना जल भरन जाति ही, मोहन घेरि लयी।
अबकी फाग प्रिय तेरे सँग खेलौं, यह अभिलाष रही।।