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तुमहीं कहा ब्रज में अनोखी भईं,
कानि नहिं काहू की करति दई।।
जानत नहिं कछु चालि यहाँ की, आई अबहिं नई।।
मोहन मिलतहिं जानि परैगी, भूलैगी सबई।
छैल खिलारी रसिक होरी कौ, लीने सखा कई।।
देखत ही तोहि दौरि परैगौ, जानि नवेली नई।
हार तोरि रंग डारि चूमि मुख, चूरीं तोरि दई।।
तब तोसों कछु बनि नहि ऐहै, जब तेरी लाज गई।
‘हरीचन्द’ सो को ऐसी जो, नै कै नहीं गई।।