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जुवनवा बैरी भये, कैसें दधि बेचन ब्रज जाउँ।
अति उतंग छतियन पर झलकत, कैसें इनहिं छिपाउँ।।
देखत ही वह दौरि परैगो, मोहन वाकौ है नाउँ।
अब नहिं आन उपाउ सखी री, तजिये गोकुल गाँउँ।।