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ये दोऊ, खेलत फूलि फाग री।।
आयौ बसन्त सबै बन फूले, चात्रिक बोले विविध बाग री।
इत रघुनाथ सखन युत आवत, उत सखि सह सिय भरि सोहाग री।।
विश्व विजय चित मनहु मदन रति, चढ़े चौंप दै विलग लाग री।
बजत उपंग मृदंग मधुर धुनि, मंद सुरन होइ मधुर राग री।।
श्रवण सुनत शिव विधि उठि धाये, नहिं भावत जप जोग जाग री।
अबीर गुलाल राम दिसि छूटत, सिय समाज संग अमित राग री।।
मची कींच मग बीच अवध में, मुनि मज्जत मानों मकर गागरी।
भींजि गये तन चीर चादरे, पट जामा उर माल पाग री।।
महाराज महारानी जू कौ, एक रंग भयौ अरुण बाग री।
कोऊ आली अटा चढ़ि बैठी, रति मलीन है अति उजागरी।।
उचकि उचकि विधु वदन बिलोकत, लसत केस मानों डसत नाग री।।
ललकारी सिय सँग की सहेली, चलीं कटि कसि कुल कानि त्यागरी।
ललकि ललकि लपटति लालन सों, पिय प्यारी के परम भाग री।।
फगुआ दीजै मँगाय कृपानिधि, पकरि फेंट अस झमकि झागरी।
‘तुलसीदास’ अनुकूल जानि प्रभु, लियौ है भक्ति वर सुभग माँगरी।।